'चाँद गवाह' एक ऐसा उपन्यास है जिसकी मुख्य पात्र दिशा समाज और परिवार की बेड़ियों को तोड़कर अपनी पहचान तलाशना चाहती है लेकिन मां,घरघरकीकहानीकहताहैउर्मिलाशिरीषकाउपन्यासचाँदगवाह बहन, भाभी जैसे दूसरे स्त्री पात्र रिश्ते-नाते, इज्जत और उम्र की दुहाई देकर उसे रोकना चाहते हैं. यह लघु उपन्यास स्त्री के चरित्र के दो पहलुओं पर प्रकाश डालता है. उपन्यास का कथानक दिशा और उसकी बहन की बीच होने वाले संवाद से शुरू होता है-"ये क्या सुन रही हूं?""क्या...""तुम किसी (?) के साथ रह रही हो?''दरअसल यह या यों कहें कि ऐसी स्थितियां आज घर-घर की कहानी हैं. एक तरफ बंधन को तोड़ने को बेताब स्त्री है तो दूसरी तरफ उसे रोकने वाली स्त्री या स्त्री-पुरुष दोनों. इस उपन्यास के जरिए लेखिका उर्मिला शिरीष ने स्त्री मुक्ति, स्त्री सशक्तीकरण, स्त्री की सृजनात्मकता, स्त्री का स्वाधीन व्यक्तित्व, स्त्री का कला पक्ष, स्त्री की वैचारिक स्वतंत्रता, स्त्री की धार्मिक मान्यताओं, सामाजिक कुरीतियों से मुक्ति, स्त्री समानता की धारणा जैसे कितने उपमान और रूपक गढ़ने की कोशिश की है. लेखिका ने काव्यात्मक भाषा का बखूबी इस्तेमाल किया है. उपन्यास के छोटे-छोटे संवाद पाठक को बांध कर रखते हैं. पढ़ते-पढ़ते कई बार आभास होता है कि ऐसे पात्र हमारे आस-पास बिखरे पड़े हैं. 'चाँद गवाह' का कथानक यथार्थ की बेहद करीब नज़र आता है. कथा के इस प्रवाह में व्यक्ति की स्वतंत्रता को परिवार की परिधि के बाहर खोजती लेखिका नए समय के यथार्थ से टकराती हैं.उपन्यास की कथा मुख्य नायिका दिशा के चारों ओर घुमती है, बिल्कुल वैसे ही जैसे रुढ़िवादी परंपराओं को तोड़ने वाली स्त्री, परिवार की दूसरी स्त्रियों के बीच होने वाली चर्चा का केंद्र है. दिशा, समाज में अपनी जगह तलाशती, अपनी पहचान तलाशती और अपना स्थायित्व तलाशती है. दिशा, निर्भीक रहकर मनमाफिक जिंदगी जीना चाहती है. जबकि एक शादीशुदा महिला की जिंदगी में दूसरे व्यक्ति की एंट्री, परिवार के बीच गम्भीर हालात और तनाव पैदा करती है जो इस उपन्यास की कथा को एक गति देता है.स्त्री के दो रूपों का समन्वय हैं 'चाँद गवाह'... एक तरफ दिशा तो दूसरी तरफ प्रतिपक्ष में खड़ी मां, भाभी, बहन के रूप वाली स्त्रियां. साथ ही दो पीढ़ियों के बीच का वैचारिक द्वंद भी बयां होता है. पीढ़ियों के बीच वाद-विवाद और संवाद उपन्यास की कथा को वास्तविक बहस में बदलता है. लेखिका उर्मिला शिरीष ने स्त्री की मनोदशा का चित्रण बखूबी प्रस्तुत किया है. वे दोनों पक्षों की भावनाओं को सटीक संवाद के जरिए परोसने में कामयाब रही हैं. उर्मिला शिरीष ने इस उपन्यास में अपने संवाद, दृश्यों, कथा स्थितियों और भाषा के प्रवाह के जरिए एक पठनीय कृति की रचना की है. उपन्यास पारिवारिक और निजी जिंदगियों की बारिकी से पोल खोलता है. जो वास्तविकता के करीब और एक व्यक्ति के जीवन का असल यथार्थ है. केवल इतना ही नहीं, यह उपन्यास एक स्त्री की व्यथा को भी व्यक्त करता है-मैं चक्की में पड़े दानों की तरह पिसती रही,लोग सोचते रहे किचक्की गा रही है औरतों के गीत.इस उपन्यास का सबसे शानदार केंद्र बिंदु है एक स्त्री. इसके कथानक में स्त्री ही प्रश्न उठाती है और स्त्री ही उसके उत्तर तलाशती है. स्त्री के दोनों पक्ष आपस में टकराते हैं. कौन गलत है-कौन सही जैसे सवालों से घिरी स्त्रियों में से एक स्त्री अपनी परिधि से बाहर निकल जाना चाहती है और दूसरी स्त्री परिधि में रहने का मानसिक दवाब बनाती है. पर इन सबके बीच कौन किस नतीजे पर पहुंचता है, और कथा किस तरह किस्सागोई की शक्ल में आगे बढ़ती है, इसे बिना उपन्यास पढ़े जाना नहीं जा सकता.शिरीष का यह उपन्यास अपने संवाद दृश्यों, कथा स्थितियों और भाषिक प्रवाह के कारण एक बेहद पठनीय कृति के रूप में प्रस्तुत है. कथा के इस प्रवाह में व्यक्ति की स्वतंत्रता परिवार की परिधि के बाहर खोजते हुए रचनाकार उस यथार्थ से टकराती हैं जो आज के नए समय में आकार ले रहा है. यहां नए सिरे से परिभाषित हो रहे रिश्तों के बीच एक बाहरी व्यक्ति की गम्भीर उपस्थिति से उपजा तनाव कथा को एक विशेष गति देता है. उपन्यास के पात्र यहां अपनी निजता को किसी के सम्मुख बंधक नहीं रखना चाहते. वह अपने मनमाफिक जीना और काम करना चाहते हैं, निर्भीक रहकर. पीढ़ियों के बीच वाद-विवाद और संवाद इस कथा को एक जीवन्त बहस में बदलते हैं, तो एक ऐसे सम्बन्ध की छवि भी मिलती है जिसका आधार है इंसानियत.उपन्यास यह सच बड़ी बारीकी से खोलता है कि एक व्यक्ति के लिए जो जीवन का असल यथार्थ होता है, वही दूसरे के लिए कैसे भ्रम में तब्दील हो जाता है? स्त्री इच्छा और स्वातंत्र्य को दो पीढ़ियों के बीच उकेरती इस उपन्यास की कथा स्त्री मन से देह तक का सफर बड़े करीने से तय करती है. प्रश्न उठाती है कि देह के सम्बन्धों से कैसे बड़े होते हैं आत्मा के रिश्ते. एकाकी जीवन से कैसे अधिक अर्थपूर्ण होती है सामूहिकता की भावना! अपने आपसे लड़ते और दुनिया के सामने न झुकने का संकल्प कैसे व्यक्तित्व को बदलकर रख देता है. लेखिका ने उपन्यास का अंत भी शानदार ढंग से किया है, जिसे जानने के लिए इस अनूठी कृति 'चाँद गवाह' को पढ़ना जरूरी है.*** |
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